साढ़ेसाती या ढैया के प्रकोप से मुक्ति दिलाता है महामृत्युंजय मंत्र
गोरखपुर
पार्थिव पूजन के लिए सावन का महिना और अधिक मास अत्यंत प्रशस्त
आचार्य पंडित शरदचन्द्र मिश्र,
गोरखपुर। प्रतिष्ठा शिवलिंगों पर भगवान शिव के अभिषेक के लिए शिववास देखने की आवश्यकता नही होती है। यह आम धारणा है कि शिव जी के अभिषेक में शिव में वास का विचार किया जा जाए। लेकिन यह भ्रामक विचार है। केवल महामृत्युंजय मंत्र को प्रारंभ, पार्थिव पूजन व अभिषेक तथा रुद्र यज्ञ में ही शिववास का विचार किया जाता है। नित्य पूजन में भी शिववास का विचार नहीं होता है। पार्थिव पूजन में क्यों है? इसका कारण यह है कि पार्थिव लिंग में शिव जी का आवाहन, स्थापन और प्रतिष्ठा की जाती है। शिव जी चर देवता हैं। वह कभी पार्वती के साथ तो कभी अन्य स्थानों में विचरण करते रहते हैं। इसके लिए बाकायदा शिववास का सूत्र है कि किस तिथि को शिव जी कहां विचरण करते हैं। माना जाता है कि शुक्ल पक्ष को छह तिथियों और कृष्ण पक्ष के छह तिथियों में वह सौम्य स्थान पर रहते है। अर्थात एक महीने में केवल 12 तिथियों में वे सौम्य और प्रहर्षित अवस्था में रहते हैं। लेकिन इसका विचार केवल शिव जी की स्थापना, महामृत्युंजय मंत्र के जंप और पार्थिव पूजन में ही किया जाता है। रही बात श्रावण की, तो श्रावण मास में शिव जी कैलास पर निवास करते हैं। अतः श्रावण के महिने में शिववास का विचार नहीं किया जाता है। रुद्राभिषेक और पार्थिव पूजन के लिए सावन महीने के प्रत्येक दिन ग्राह्म दिन है।
पार्थिव पूजा विधि
पार्थिव पूजन अत्यंत प्रभावशाली है। इसमें प्रतिदिन मिट्टी का शिवलिंग बनाकर पूजा की जाती है। यह पूजन स्त्री, पुरुष, शूद्र, हरिजन आदि सभी वर्ण के लोग कर सकते हैं। जिन्होंने यज्ञोपवीत धारण की है, वे ऊं शब्द का उच्चारण करें और जो यज्ञोपवीत रहित है वे ऊं शब्द का परित्याग कर नमः शिवाय की ही प्रयोग करें। पूजन के पहले पीपल या शमी के वृक्ष के नीचे की चार अंगुल मिट्टी हटाकर नीचे की मिट्टी ग्रहण करें। इसके अतिरिक्त बांबी या पवित्र नदी के किनारे की मिट्टी का प्रयोग पार्थिव लिंग के निर्माण में किया जाए। यदि पवित्र सरोवर हो तो उसकी मिट्टी भी प्रयोग में लाई जा सकती है। पूजा के पहले स्नान कर स्वच्छ धुले वस्त्र धारण कर, संध्योपासन आदि क्रिया ही निवृत्त होकर उन या रेशमी आसन पर बैठकर ही पूजा प्रारंभ करें। शिव जी की पूजा में रुद्राक्ष पहनना आवश्यक है। साथ ही साथ ललाट पर त्रिपुण्ड भी धारण करें। पूजा के लिए पूर्व या उत्तर दिशा में मुंह करके ही बैठें। आचमन, प्राणायाम, शुद्धिकरण कर तेल का दीपक प्रज्ज्वलित करें। अक्षत, पुष्प, जल लेकर गणपति देवता को स्मरण करें। पुनः हाथ में कुश, जल, अक्षत, सुपारी, द्रव्य लेकर संकल्प करें।
पुनः भूमि को प्रणाम करते हुए कहें- हे संसार की आधार पृथ्वी देवी, मैं शिवलिंग बनाने के लिए आपके इस मिट्टी को प्रणाम कर रहा हूं।आप प्रसन्न और प्रभा वाली हो। जब मिट्टी हाथ में लें तो पुनः -हे पृथ्वी की अंश मृत्तिका, तुम वराह भगवान द्वारा समुद्र से उद्धार कर निकाली हुई हो तथा कृष्ण द्वारा हजारों भुजाओं से उठाई गई हो। मैं परिवार के सहित तुम्हें धारण करता हूं। इस तरह का उच्चारण करने के बाद मिट्टी में जो कंकर, तिनका इत्यादि को निकाल देना चाहिए। कम से कम एक तोला से कम पार्थिव लिंग नहीं बनाना चाहिए। पार्थिव लिंग अंगूठे से कम न हों और एक बित्ता से अधिक न हों। उतनी मिट्टी –ऊं हराय नमः -मंत्र बोलकर लें। उस मिट्टी को जल मिलाकर गूंथ लें। इस गीली मिट्टी में –ऊं महेश्वराय नमः -बोलकर अण्डाकार, सुंदर शिवलिंग बनाएं। इस पार्थिव लिंग पिंड पर एक छोटी सी गोली बनाकर रख दें। यह छोटी गोली वज्र कहलाती है। अब किसी पात्र में बिल्वपत्र रखकर उस पर पार्थिव लिंग को स्थापित कर दें। मंत्र पढ़े-ऊं शूलपाणये नमः– हे शिव, इह प्रतिष्ठितो भव। इस मंत्र से बिल्वपत्र पर रखा मृण्मय शिवलिंग प्रतिष्ठित हो गया। कुछ विद्वान लोग प्रतिष्ठा के लिए और भी मंत्रों का प्रयोग करते हैं। वह भी ठीक ही है।
पार्थिव शिवलिंग की पूजा करते समय शिव लिंग पर बिल्वपत्र से आच्छादित कर दें ताकि जल चढ़ाते समय उसका क्षरण न हों। पहले पार्वती सहित शिव का ध्यान करें। पुनः-ऊं भगवते साम्ब शिवाय नमः– मंत्र का उच्चारण करते हुए षोडशोपचार विधि से या सम्भव न हो तो पंचोपचार विधि से ही पूजन कर लें।-ऊं नमः शिवाय या रूद्राष्टाध्यायी के सोलह मंत्रों से अभिषेक करें। पूजन हो जाने के बाद शिव जी से सम्बंधित किसी स्त्रोत का पाठ अवश्य किया जाए। यदि स्त्रोत का पाठ करने में असुविधा हो तों ग्यारह माला पंचाक्षर का जप ही करें। पश्चात उसका विसर्जन कर दिया जाए। यह संक्षिप्त पार्थिव लिंग की पूजा का विधान है।
मृत्युंजय मंत्र की साधना से दूर होता है आकस्मिक दुर्घटना की सम्भावना
मृत्युंजय मंत्र साधना का भी उत्तम समय सावन का महिना है। यदि कुण्डली में अरिष्टकर दशा चल रहा है या कोई व्यक्ति शनि की साढ़ेसाती या ढैया के प्रकोप से पीड़ा का अनुभव कर रहा है तो उसे सावन के महिने में महामृत्युंजय मंत्र का जप करना चाहिए। यदि सम्भव नहीं है तो सुयोग्य और इमानदार, सदाचारी विद्वान से ही जप करना लें। इससे शनि जनित पीड़ा और ग्रहों के दुष्प्रभाव से राहत मिल जाती है। कहा जाता है कि मार्कण्डेय मुनि की आयु बहुत कम थी लेकिन मृत्युंजय मंत्र की साधना से वे चिरायु हो गए थे। सचमुच वे अमरत्व को प्राप्त हो गए। कुछ लोग सावन के महिने में महामृत्युंजय स्त्रोत का भी पाठ सविधि करते हैं। मृत्युंजय मंत्र जीवन प्रदान करने वाला मंत्र है। जिसके जन्मपत्रिका में अल्पायु योग हो, आकस्मिक दुर्घटना होने की सम्भावना होने की सम्भावना बनती है या चोट चपेट की सम्भावना हो। बार बार चोट लगता है। ऐसे व्यक्तियों को सावन के महिने में मृत्युंजय मंत्र की साधना करनी चाहिए।
महामृत्युंजय मंत्र जप से मिलती है रोगो की पीड़ा मुक्ति
कठिन और असाध्य रोगों पर भी इस मंत्र साधना से विजय प्राप्त की जा सकती है। रोगो के कारण बहुत पीड़ा झेलने वाले व्यक्तियों के लिए यह रामबाण इलाज भी है। यदि महामृत्युंजय मंत्र का जप न कर सके तो सावन के महिने में द्वादशाक्षरी मृत्युंजय मंत्र अथवा लघु मृत्युंजय मंत्र किसी जप करें तो भी लाभप्रद रहता है। यदि कोई व्यक्ति सावन के महिने में मृत्युंजय मंत्र की साधना करता है तो वह वर्ष पर्यन्त आरोग्यता का लाभ उठाता है। आने वाले एक वर्ष तक नह निरापद रहकर अपने दिनचर्या में व्यस्त रहता है। उसे आधि व्याधि से छुटकारा मिलता है। मृत्युंजय मंत्र के अलावा और भी मंत्र है जिनकी साधना और जप सावन के महिने में की जाती है और उसमें चमत्कारिक लाभ भी देखा गया है। मृत्युंजय साधना न केवल स्वास्थ्य के लिए ही हैं। इससे और भी समस्याओं का समाधान मिलता है। सुखी सम्पन्न और स्वस्थ जीवन के लिए मृत्युंजय मंत्र का जप नियमपूर्वक सावन महीने में अवश्य करनी चाहिए।
भगवान शिव को अत्यधिक प्रिय है बिल्वपत्र
शिव जी के पूजा में मानस पूजा का भी बहुत महत्व है। यह मानस पूजा विभिन्न मंत्रों के मनन के की जाती है। मानस पूजा में आराधक का जितना समय लगता है, उतना ही भगवान के सम्पर्क में बीतता है। वह संसार से दूर ईश्वर की शरण में होता है। भगवान शिव का पूजन पंचोपचार, दशोपचार, षोडशोपचार, चौंसठ उपचार और राजोपचार के द्वारा किया जाता है। भक्त अपनी श्रद्धा के अनुसार इन उपचारों से भगवान का पूजन कर सकता है। भगवान शिव के पूजन में कुछ तथ्यों पर ध्यान रखना चाहिए। इसमें से कुछ तथ्य इस प्रकार हैं- भगवान शिव को बिल्वपत्र अत्यधिक प्रिय है। बिल्वपत्र अर्पित करते समय मुंह से बम बम की ध्वनि करना चाहिए। इससे शिव जी प्रसन्न हो जाते हैं।
पूजा की वस्तु
भगवान शिव को आक के पुष्प, द्रोणपुष्प, अपामार्ग, कुश के फूल, शमीपत्र, नीलकमल, धतूरा चढाना श्रेष्ठ माना जाता है। कदंब, केवड़ा, बकुल, केंथ, गाजर, बहेड़ा, गंभारी, सेमर, अनार, जूही और दोपहरिया के फ़ूल वर्जित हैं। फ़ूल और पत्ते जैसे उगते हैं वैसे ही चढ़ाना चाहिए। उत्पन्न होते समय उनका मुंह ऊपर की ओर होता है, अतः चढ़ाते समय उनका मुंह ऊपर की ओर रखना चाहिए। दूर्वा, तुलसी की मंजरी और बेलपत्र नीचे की ओर मुंह करके चढ़ाना चाहिए। दाहिने हाथ की करतल को उत्तान करके मध्यमा, अनामिका और अंगूठे की सहायता से फ़ूल चढ़ाना चाहिए और अर्पित किए हुए फ़ूल अंगूठे और तर्जनी की सहायता से उतारना चाहिए।
श्रावण महिने में कई अशुभ योगों की शांति भी किया जाता है। जैसे शकट योग, ग्रहण योग, केमद्रुम योग, कालसर्प योग, विष योग, राजभंग योग। इन योगों का बहुत दुष्प्रभाव व्यक्तियों पर पड़ता है। सावन के महिने में इन कुयोगों की शांति की जाती है। शांति करने के अनन्तर व्यक्ति को इससे राहत और सकून मिलता है।
शकट योग से जीवन में खुशहाली का अभाव और आर्थिक परेशानियों का सामना करना पड़ता है। यदि चंद्रमा से बृहस्पति या शुक्र चौथे या आठवें हैं, यह योग निर्मित हो जाता है। इसके लिए चंद्रमा, बृहस्पति और शुक्र के मंत्रों का चतुर्गुणित करके जप करे या करवा दें। यदि यह सावन के महिने में किया जाए तो शिव जी का महिना होने से ज्यादा प्रशस्त रहता है। इसके अतिरिक्त इस कुयोग की शांति के लिए रुद्राभिषेक भी करवाना चाहिए। इससे आने वाले समय में इसका नकारात्मक प्रभाव समाप्त हो जाता है।