मणिपुर हिंसा की जड़े वहां का कानून है 

गोरखपुर

मणिपुर में दो प्रमुख लोग हैं। एक मैतेई समाज और दूसरा कुकी। कुकी बहुसंख्यक ईसाई धर्मानुयायी है। इतिहास में देखा जाए तो वे पहले हिन्दू, कुछ बाद बौद्ध और वर्तमान में ईसाई है। आज वहां जो संघर्ष हो रहा है, उसके मूल में मणिपुर का कानून ही दूषित है। आरक्षण का लाभ की जनजाति कुकी लोगों भरपूर मिलता है और मैतेईयो को इस लाभ से वंचित रखा गया है। सम्पूर्ण भूभाग पर कुकियों‌ का कब्जा है। मात्र दस प्रतिशत भूमि पर ही मैतेई समाज के लोगों का आधिपत्य है, जबकि मैतेई समाज की जनसंख्या लगभग साठ प्रतिशत है। मणिपुर के कानून के अनुसार कुकी लोग पहाड़ के नीचे घाटियों में जमीन खरीद सकते हैं लेकिन वही मैतेई लोग पहाड़ की ज़मीन जिस पर कुकियों की आबादी है वहां ज़मीन नहीं ख़रीद सकते।इसे विसंगति ही कहा जाएगा।

मणिपुर हिंसा की जड़े वहां का कानून ही है

कुकियों के बारे में बहुत कुछ कहा जाता है। कहा जाता है कि मणिपुर में मैतेई हिन्दुओं का राज्य था। वहां मैतेई समाज के हिन्दू राजा राज्य करते रहते थे। पड़ोस में नागाओं से उनका संघर्ष चलता रहता था। इसलिए मैतेई राजाओं ने म्यांमार से लाकर इन कुकियों को बसाया था। वे नागाओं और मैतेईयो के बीच बसे हुए थे और मणिपुर के हिन्दू राजाओं के राज्य की रक्षा करते रहते थे। इस तरह से कुकी लोग मणिपुर के मूल निवासी नहीं है। इन्हें विदेशी माना गया है। लेकिन इतिहासकारों का कथन है कि कुकी भी मणिपुर के ही निवासी हैं और यह जनजाति बहुत पहले से, ईसा की कई शताब्दी पूर्व से ही यही रह रही है। ये लोग पहाड़ियों में रहते हैं। अंग्रेज़ो के आगमन से पूर्व ये बौद्ध और हिन्दू धर्मानुयायी रहे हैं लेकिन अंग्रेजों के आगमन के बाद ये ईसाई बन गए हैं और भारत भूमि से पृथक इंग्लैंड को अपनी पुण्यभूमि मानते हैं। जब अंग्रेज इनके मध्य पहुंचे थे तो इससे अफीम की खेती कराने लगे और ये लोग मादक कारोबार से जुड़ गए। भारत स्वतंत्र हो गया और अफ़ीम की खेती को कुछ क्षेत्रों को छोड़कर पूर्णरुपेण प्रतिबंधित कर दिया गया, लेकिन ये कुकी आज भी अफीम की खेती करते हैं और भारत सरकार के कानून को धत्ता बताते हैं। इन्हें जनजाति माना जाता है और इसका भरपूर लाभ इन्हें मिलता है। मैतेई समाज को अगड़ा मानकर लाभों से मुक्त रखा जाता है, जबकि कुकी लोग आर्थिक मामलों में कुकियो से पीछे नहीं है। कहीं न कहीं इस कानून से मैतेई समाज आहत हैं और उनके मन में कुकियो के प्रति प्रतिशोध की भावना उबल रही है। वर्तमान घटना उसी की एक कड़ी है। ऐसा नहीं है कि यह संघर्ष पहली बार हुआ है। इसके पहले भी मैतेईयो और कुकियो में कई बार संघर्ष हो चुका है। पूर्वोत्तर भारत में केवल कुकी ही नहीं, बहुत सी और भी जनजातिय समुदाय के लोग निवास करते हैं और उन में संघर्ष चलता रहा है। पहले ये जंगली और क्रूर लोग हुआ करते थे। कालांतर में हिन्दू और बौद्ध धर्म के प्रभाव से कुछ सभ्य हुए, लेकिन जनजातिय क्रूर गुण तो इनमें बना ही रहता है।

कुकी जाति का इतिहास के देखा जाए तो ये प्राचीन किरातो की ही एक जाति है। ये पूर्वी हिमालयी क्षेत्र में निवास करते थे। किरातो का वर्णन पुराणों और महाभारत में है। भारत के प्राचीन साहित्य में इस कुकी या किरातो का वर्णन भरपूर मिलता है। मैत्रेई जाति का भी इतिहास भरा पड़ा है। मैतेई शब्द मैत्री से बना है। जो भारतीय या आर्य पश्चिम से जाकर इन जनजातियों के साथ मैत्री भाव से जीना सिखाए, वे मैतेई के रुप परिगणित किए गए। पहले समस्त कुकी या किरातो जाति के लोग शैव और बौद्ध धर्म से नाता रखते थे। लेकिन देश को विखंडित करने के लिए और पूरे भारत को ईसाई बनाने का सपना देखने वाले ईसाई अंग्रेजों ने इनका धर्म परिवर्तन किया।आज आपको सम्पूर्ण पूर्वोत्तर भारत- जैसे त्रिपुरा, मणिपुर, मिजोरम, नागालैंड, मेघालय में ईसाईयों की भारी संख्या मिलेगी। ये अंग्रेजो के आने से पहले हिन्दू या बौद्ध थे।

इतिहासकार तारानाथ का आगमन भारत में उस समय हुआ था जब नालंदा विश्वविद्यालय को बख्तियार तुगलक ने जलाकर राखकर दिया था और बौद्ध भिक्षु मार डाले गए थे या इस्लाम स्वीकार कर लिए थे।बचे खुचे हिमालयी क्षेत्र की ओर भाग गए थे। लामा तारकनाथ उत्तर भारत की यात्रा किए थे। उन्होंने यहां का इतिहास लिखा और उसमें कुकी नामक जनजाति के बारे में लिखा है। उनके अनुसार बंगाल और असम के बीच पहाड़ियों पर कुकी नाम की जनजाति निवास करती है और वे बौद्ध धर्म का बड़ी बखूबी से पालन करते हैं। तारानाथ ने लिखा है कि उसने वहां हजारों बौद्ध विहारों को देखा, जिसमें बौद्ध भिक्षु निवास करते थे। इससे सिद्ध होता है कि कुकी बाहरी लोग नहीं हैं। वे बहुत पहले से ही यहां रहते चले आ रहे हैं। यह कहना कि अंग्रेजों ने म्यांमार से लाकर इन्हें यहां बसाया है, पूर्ण भ्रामक धारणा है।

समाज में सौहार्द कायम करने वाले कानून के निर्माताओं को चाहिए कि विशेषाधिकार और आरक्षण की नीति पर सोच समझ कर कदम उठाएं। नहीं तो असंतोष की चिंगारी चल उठेगी। वह समाज के सौहार्द को समाप्त कर देगी। जिस राज्य में आधे से आधिक हिन्दू समाज के मैतेई रह रहे हैं और उनके पास केवल दस प्रतिशत ही भूमि है, वह आखिर अपने ही राज्य में जमीन क्यों नहीं खरीद सकते? यह अहम प्रश्न है जिसे मणिपुर की सरकार को सोचना होगा। आर्थिक रुप से सम्पन्न कुकियो को आरक्षण का लाभ क्यों? उनकी देश भक्ति भी भारत के प्रति कम ही है, फिर भी जनजाति होने के कारण सभी फायदा से भरपूर क्यों? कुकी विदेशी मिशनरियों के प्रभाव में रहते हैं और मैतेईयो को भी ईसाई धर्म में दीक्षित करना चाहते हैं। ईसाई और इस्लाम विदेशी धर्म है। जो ईसाई या मुसलमान हो जाता है, उसकी जन्मभूमि भले ही भारतवर्ष हो लेकिन पुण्य भूमि तो यार्कशायर, लुर्द, मक्का, यरुशलम और वैटिकन सिटी हो जाता है।

भारत में रहने वाले प्रायः सभी ईसाई या मुसलमानों के पूर्वज हिन्दू ही थे। वे हिन्दुओं की औलादें हैं। लेकिन यह कहने में उन्होंने शरम आती है।वे इतिहास की इस सच्चाई पर पर्दा डालते हैं। यदि कहा जाए कि वे हिन्दुओं की संतान हैं वे तों इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं होते हैं। अपने बच्चों का नाम अरबी नायकों और यूरोपीयन नायकों के नाम पर रखते हैं।शायद इस देश में कोई अच्छा व्यक्ति पैदा ही न हुआ, जिसके नाम पर वे अपने बच्चों का नामकरण करें। उनकी सोच की प्रवृत्ति बदल जाता है। धर्म बदला तो सोच भी बदल गई। जहां वे रहते हैं,वह उनके पुण्यभूमि नहीं है। जहां से उनकी परवरिश होती है वह उनकी पुण्यभूमि नहीं है। अपने मातृभूमि के प्रति प्रेम आंशिक हो जाता है। यही स्थिति कुकियो की भी है।वे अपने को ऊंचा मानकर अपने विचारों को मैतेईयो पर आरोपित करना चाहते हैं। यह भी उन में संघर्ष का एक कारण है।

कुकियो के इतिहास की जानकारी महाभारत में उपलब्ध है।तारानाथ की पुस्तक – बौद्ध धर्म का इतिहास है। यह वाराणसी से मोतीलाल बनारसी दास पब्लिशर्स से प्रकाशित है‌। इसमें उन्होंने कहा गया है कि कुकी देश के पूर्वोत्तर के पहाड़ियों में रहने वाली जाति है।इसका सम्बंध महाभारत काल से है।इस जाति को उन्होंने कोकी कहा है।इस क्षेत्र को कोकी कहते हैं। उन्होंने लिखा है कि यहां के लोग कहते हैं कि उनके पूर्वज महाराजा अशोक के समय से यहां रहते चले आ रहे हैं। अंग्रेजी में इसी कोकी से कुकी शब्द आया है।इस इतिहास में कोकियो की स्थिति को म्यांमार के रखाइन प्रांत तक सिद्ध किया गया है। सम्भवतः इस जाति के लोग मणिपुर और रखाइन दोनों स्थानों पर निवास करते रहे हैं। त्रिपुरा में दो ताम्रपत्र पाए गए हैं जहां कुकी जनजाति के बारे में सुस्पष्ट वर्णन है।पहला पंचखण्ड ताम्रपत्र है।यह सन् 641 का है।इस ताम्रपत्र में एक घटना का उल्लेख है, जिसमें कहा गया है कि पूर्व दिशा में पांच संत ब्राह्मणों को हाकुला कुकियो द्वारा कुछ भूमि दान की गई थी जिसके अंदर तेंग्कोरी कुकियो द्वारा दान की खेती की जाती थी। इससे सिद्ध होता है कि त्रिपुरा के पूर्व हाकुला और तेंग्कोरी नाम की कुकी जनजाति रहती थी। दुसरा ताम्रपत्र सन् 1194 निर्धारित किया गया है।इसे ईटा ताम्रपत्र के नाम से जाना जाता है।इस ताम्रपत्र में कहा गया है कि पूर्व में स्थित लांगला पहाड़ी से घिरे मनुकूला प्रदेश में कुकी आबादी वाली भूमि में मिथिला के आए हुए ब्राह्मणों को भूमि दान दी गई थी।यह भी जानिए कि लांगला पहाड़ी वर्तमान में मणिपुर में लागोंली पहाड़ी के नाम से जाना जाता है।इन सबसे प्रमाणित होता है कि सातवीं शताब्दी और ग्यारहवीं शताब्दी में यहां कुकी जनजाति का अस्तित्व था।

कुकी विदेशी नहीं है।वे इसी भूमि के है, आज वे जहां रह रहे हैं, वह उनकी भूमि है। केवल धर्म भर बदल गया है। त्रिपुरा में राजमाला संभवतः एकमात्र प्रमाणिक दस्तावेज है जो पूर्वोत्तर भारत के इतिहास पर प्रकाश डालता है। इसमें 145 राजाओं और उनके शासनकाल का विवरण है। इसमें सन् दो हजार से भी अधिक समय की घटनाओं को अच्छी तरह से एकत्र कर लिखा गया है। राजमाला में कुकी लोगों को भगवान शंकर का अनुयाई माना गया है और कहा गया है कि यह भगवान शंकर की उपासना करते हैं।कुकी जनजाति का पहला उल्लेख राजा सुब्रई या त्रिलोचन के शासनकाल का है। यह 47 में राजा थे।इस पुस्तक या दस्तावेज़ में मणिपुर के राजाओं का जिक्र है। इसमें शताब्दियों की घटनाओं को रेखांकित किया गया है।इस इतिहास को स्थानीय भाषा में चैथरोल के नाम से जाना जाता है।इस इतिहास से पता चलता है कि अंग्रेजों के आने के बहुत पहले से कुकी मणिपुर क्षेत्र में रहते थे।

इसी दस्तावेज में उल्लेख है कि 1467 में इन पहाड़ियों पर एक जनजाति रहती थी। जिसे गया क्यांग या चिन कहा जाता था। सन 1508 में कहा गया है कि यहां खोंगसई जनजाति रहती थी। इंफाल के दक्षिण की पहाड़ियों को खोंगसई पहाड़ी कहा गया है। यह कहना उचित है कि और दोनों ही कुकी समाज की उपजातियां है ।यह सिद्ध करता है कुकी लोग इन पहाड़ियों में 15 वी शताब्दी के पहले से रहते चले आ रहे हैं। मणिपुर शाही के बारे में लिखे गए दस्तावेज में कुकी लोगों के खिलाफ कई अभियानों का उल्लेख है। सन् 1734 में मगईतांग पहाड़ी अभिमान,1786 का अभियान, और एक और पहाड़ी अभियानों का वर्णन है।इस प्रकार से विदित होता है कि भूमि सम्पदा को लेकर कुकी और मैतेईयो में संघर्ष चलता रहा है।

इसी दस्तावेज में उल्लेख है कि 1467 में इन पहाड़ियों पर एक जनजाति रहती थी। जिसे क्यांग या चिन कहा जाता था। सन 1508 में कहा गया है कि यहां तय खोंगसई जनजाति रहती थी। इंफाल के दक्षिण की पहाड़ियों को खोंगसई पहाड़ी कहा गया है। यह कहना उचित है कि और दोनों ही कुकी समाज की उपजातियां है ।यह सिद्ध करता है कुकी लोग इन पहाड़ियों में 15 वी शताब्दी के पहले से रहते चले आ रहे हैं। मणिपुर शाही के बारे में लिखे गए दस्तावेज में कुकी लोगों के खिलाफ कई अभियानों का उल्लेख है। सन् 1734 में मगईतांग पहाड़ी अभिमान,1786 का अभियान, और एक और पहाड़ी अभियानों का वर्णन है।इस प्रकार से विदित होता है कि भूमि सम्पदा को लेकर कुकी और मैतेईयो में संघर्ष चलता रहा है।

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