आस्था की अनूठी परंपरा, त्रेतायुग में भगवान श्रीराम बने कांवड़िया
गोरखपुर
समुद्र मंथन से जुड़ी है आस्था की अनूठी परंपरा, त्रेतायुग में भगवान श्रीराम बने कांवड़िया
आम तौर पर लोग इसे श्रवण कुमार से जोड़ कर देखते हैं, जबकि ऐसा नहीं है। इसमें भगवान राम से लेकर रावण और परशुराम तक का नाम जुड़ा हुआ है। इनका प्रथम कांवड़िया के रूप उल्लेख मिलता है।
कांवड़ यात्रा को लेकर तमाम मान्यताएं और कथाएं हैं। इसमें प्रथम कांवड़िये को लेकर बहुत सी रोचक बातें सामने आती हैं। आम तौर पर लोग इसे श्रवण कुमार से जोड़ कर देखते हैं, जबकि ऐसा नहीं है। इसमें भगवान राम से लेकर रावण और परशुराम तक का नाम जुड़ा हुआ है। इनका प्रथम कांवड़िया के रूप उल्लेख मिलता है। इसके लिए ज्योतिर्विद भरत मिश्र ने अपने शोध से कुछ अंश का जिक्र किया है। कांवड़ यात्रा की शुरुआत का इतिहास कुछ भी हो, लेकिन वर्तमान में यह शिव जी के प्रति विशुद्ध आस्था का प्रतीक है। भक्त कांवड़ यात्रा के जरिये न सिर्फ ईश्वर के प्रति भावनाएं प्रकट करते हैं, बल्कि यह भी मानते हैं कि इससे शिवजी उनकी मनौतियों को पूरा करेंगे।
पहली कांवड़ का आरंभ
सबसे पहले भगवान परशुराम ने कांवड़ यात्रा की शुरुआत की थी। परशुराम गढ़मुक्तेश्वर धाम से गंगाजल लेकर आए थे और उत्तर प्रदेश के बागपथ के पास स्थित ‘पुरा महादेव’ का गंगाजल से अभिषेक किया था। उस समय सावन मास ही चल रहा था। इसी के बाद से कांवड़ यात्रा की शुरुआत हुई।
पुराणों के अनुसार, कांवड़ यात्रा की परंपरा समुद्र मंथन से जुड़ी है। समुद्र मंथन से निकले कालकूट विष को जब शिव जी ने पी लिया तो उनका कंठ नीला पड़ गया। शिव को विष के नकारात्मक प्रभावों से मुक्त कराने के लिए उनके अनन्य भक्त रावण ने कांवड़ में जल भरकर पुरा महादेव स्थित शिव मंदिर में शिव जी का अभिषेक किया। इससे शिव जी विष के नकारात्मक प्रभावों से मुक्त हुए। मान्यता है कि शिवलिंग पर जलाभिषेक करने से शिव जी को विष के नकारात्मक प्रभावों से राहत मिलती है और वे प्रसन्न होते हैं। इसी से कांवड़ यात्रा परंपरा की शुरुआत हुई।
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भगवान राम बने कांवड़िया
भगवान भोले नाथ के नाम पर निकाली जाने वली कांवड़ यात्रा का स्वरूप समय के साथ बदलता रहा है। पहले एक या दो लोग कांवड़ में गंगाजल लेकर जंगल और खेतों के रास्ते मंदिरों तक पहुंचा करते थे और भगवान का जलाभिषेक करते थे। रास्ते में तमाम लोगों के सामने बाधाएं आईं और घटनाएं घटीं। लिहाजा सुरक्षा की दृष्टि से कांवड़िये चार पांच की टोलियां बना कर चलने लगे।
फिर धीरे-धीरे एक बड़े समूह के रूप में कांवड़ियों का निकलना शुरु हो गया। जल लाने और जलाभिषेक की परंपरा आज भी बदस्तूर कायम है मगर आज के दौर में इसका भव्य रूप देखने को मिल रहा है। इसे लेकर कुछ जत्थेदारों का कहना है कि समूह में चलना आसान है। किसी को कोई दिक्कत आती है तो बाकी लोग मददगार बन जाते हैं।