“माँ नारायाणी” कैसे बनी राणी सती दादी?

गोरखपुर

परम आराध्य श्री दादी जी के प्रताप उनके वैभव व अपने भक्तों पर निःस्वार्थ कृपा बरसाने वाली “माँ नारायाणी” को कौन नही जानता। भारत में ही नही विदेशों में भी इनके भक्त और उपासक है। आइए जानते हैं “माँ नारायाणी” कैसे बनी राणी सती दादी?

भादी मावस पर विशेष

तनिष्का गुप्ता,

“माँ नारायाणी” की अमर गाथा इस प्रकार है कि रानी सती का वास्तविक नाम नारायणी था, जो उनके पैदा होने का पश्चात रखा गया था। माना जाता है कि एक युद्ध के दौरान नारायणी देवी या रानी सती के पति की मौत हो जाती है जिसके बाद रानी सती अपने पति की मौत का प्रतिशोध लेती है और अपने पति के साथ सती हो जाती है। जिसके बाद से लोग नारायणी देवी को आदि शक्ति का रूप भी मानने लगे।”

लगभग 400 बर्ष पीछे मंदिर में मिले प्रमाणों और किवदंतीयों के अनुसार मंदिर की देवता रानी सती है जो एक राजस्थानी महिला रानी थी। रानी सती का वास्तविक नाम *”नारायणी”* था जो उनके पैदा होने का पश्चात रखा गया था। माना जाता है कि एक युद्ध के दौरान नारायणी देवी या रानी सती के पति की मौत हो जाती है जिसके बाद रानी सती अपने पति की मौत का प्रतिशोध लेती है और अपने पति के साथ सती हो जाती है। जिसके बाद से लोग नारायणी देवी को आदि शक्ति का रूप भी मानने लगे। इस प्रकार धीरे-धीरे लोगों की नारायणी देवी के प्रति श्रद्धा बढती ही गई और उन्हें रानी सती के रूप में पूजा जाने लगा। जो आज देश दुनियां में मारवाड़ (राजस्थान) समाज के लोग इन्हें अपनी कुल देवी के रूप में पूजते हैं।

पौराणिक इतिहास से ग्यात होता है की महाभारत के युद्ध में चक्रव्यूह में वीर अभीमन्यु वीर गति को प्राप्त हुए थे। उस समय उत्तरा जी को भगवान श्री कृष्णा जी ने वरदान दिया था की कलयुग में तू “नारायाणी” के नाम से श्री सती दादी के रूप में विख्यात होगी और जन जन का कल्याण करेगी, सारे दुनिया में तू पूजीत होगी। उसी वरदान के स्वरूवप श्री सती दादी जी आज से लगभग 715 वर्ष पूर्वा मंगलवार मंगसिर वदि नवमीं सन्न 1352 ईस्वीं 06.12.1295 को सती हुई थी।

जन्म: श्री दादी सती का जन्म संवत 1638 वि. कार्तिक शुक्ला नवमीं दिन मंगलवार रात १२ बजे के पश्चात डोकवा गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम सेठ श्री गुरसामल जी था।

बचपन: इनका नाम नारायाणी बाई रखा गया था। ये बचपन में धार्मिक व सतियो वाले खेल खेलती थी। बड़े होने पर सेठ जी ने उन्हे धार्मिक शिक्षा के साथ-साथ शस्त्र शिक्षा व घुड़सवारी की शिक्षा भी दिलाई थी | बचपन से ही इनमे दैविक शक्तियाँ नज़र आती थी, जिससे गाँव के लोग आश्चर्य चकित थे।

विवाह: नारायाणी बाई का विवाह हिस्सर राज्य के सेठ श्री ज़ालीराम जी के पुत्रा तनधन दास जी के साथ मंगसिर शुक्ला नवमीं सन्न 1352 मंगलवार को बहुत ही धूम धाम से हुआ था।

तनधन जी का इतिहास: इनका जन्म हिस्सार के सेठ ज़ालीराम जी के घर पर हुआ था। इनकी माता का नाम शारदा देवी था। छोटे भाई का नाम कमलाराम व बहिन का नाम स्याना था। ज़ालीराम जी हिस्सार में दीवान थे। वहाँ के नॉवब के पुत्र और तनधन दास जी में मित्रता थी परंतु समय व संस्कार की बात है, तनधन दास जी की घोड़ी शहज़ादे को भा गयी। घोड़ी पाने की ज़िद से दोनो में दुश्मनी ठन गयी। घोड़ी छीनने के प्रयत्न में शहज़ादा मारा गया। इसी हादसे से घबरा कर दीवान जी रातो रत परिवार सहित हिस्सर से झुनझुनु की ओर चल दिए। हिस्सर सेना की ताक़त झुनझुनु सेना से टक्कर लेने की नही थी। दोनो शाहो में शत्रुता होने के कारण ये लोग झुनझुनु में बस गये।

मुकलावा: मुकलावे के लिए ब्राह्मण के द्वारा दीवान साहब के पास निमंत्रण भेजा गया। निमंत्रण स्वीकार होने पर तनधन दास जी राणा के साथ कुछ सैनिको सहित मुकलावे के लिए “महम” पहुँचे। मंगसिर कृष्णा नवमीं सन्न 1352 मंगलवार प्रातः शुभ बेला में नारायाणी बाई विदा हुई।

परंतु होने को कुछ और ही मंजूर था | इधर नवाब घात लगाकर बैठा था। मुकलावे की बात सुनकर सारी पहाड़ी को घेर लिया। “देवसर” की पहाड़ी के पास पहुँचते ही सैनिको ने हमला कर दिया। तनधन दास जी ने वीरता से डटकर हिस्सारी फ़ौजो का सामना किया। विधाता का लेख देखिए पीछे से एक सैनिक ने धोके से वार कर दिया, तनधन जी वीरगति को प्राप्त हुए।

नई नवेली दुल्हन ने डोली से जब यह सब देखा तो वह वीरांगना नारायाणी चंडी का रूप धारण कर सारे दुश्मनो का सफ़ाया कर दिया। झडचन का भी एक ही वार में ख़ात्मा कर दिया। लाशो से ज़मीन को पाट दिया। सारी भूमि रक्त रंजीत हो गयी। बची हुई फौज भाग खड़ी हुई। इसे देख राणा जी की तंद्रा जगी, वे आकर माँ नाराराणी से प्रार्थना करने लगे, तब माता ने शांत होकर शस्त्रों का त्याग किया।

फिर राणा जी को बुला कर उनसे कहा– मैं सती होउंगी तुम जल्दी से चीता तय्यार करने के लिए लकड़ी लाओ। चीता बनने में देर हुई और सूर्या छिपने लगा तो उन्होने सत् के बल से सूर्या को ढलने से रोक दिया। अपने पति का शव लेकर चीता पर बैठ गई। चुड़े से अग्नि प्रकट हुई और सती पति लोक चली गयी। चीता धू धू जलने लगी। देवताओं ने गदन से सुमन वृष्टि की।

वरदान: तत्पश्चात चीता में से देवी रूप में सती प्रकट हुई और मधुर वाणी में राणा जी से बोली, मेरी चीता की भस्म को घोड़ी पर रख कर ले जाना, जहाँ ये घोड़ी रुक जाएगी वही मेरा स्थान होगा। मैं उसी जगह से जन-जन का कल्याण करूँगी। ऐसा सुन कर राणा बहुत रुदन करने लगा। तब माँ ने उन्हे आशीर्वाद दिया की मेरे नाम से पहले तुम्हारा नाम आएगा “रानी सती” नाम इसी कारण से प्रसीध हुआ। घोड़ी झुनझुनु गाँव में आकर रुक गयी। भस्म को भी वहीं पघराकर राणा ने घर में जाकर सारा वृतांत सुनाया। ये सब सुनकर माता पिता भाई बहिन सभी शोकाकुल हो गये। आज्ञनुसार भस्म की जगह पर एक सुंदर मंदिर का निर्माण कराया। आज वही मंदिर एक बहुत बड़ा पुण्य स्थल है, जहाँ बैठी माँ “रानी सती दादी जी” अपने बच्चो पर अपनी असीम अनुकंपा बरसा रही है। अपनी दया दृष्टि से सभी को हर्षा रही है।

रानी सती मंदिर

रानी सती मंदिर दादी मंदिर राजस्थान राज्य के झुंझुनू जिले के झुंझुनू में स्थित है। यह भारत का सबसे बड़ा मंदिर है, जो एक राजस्थानी महिला रानी सती को समर्पित है, जो 13 वीं और 17 वीं शताब्दी के बीच में रहती थी और अपने पति की मृत्यु पर सती (आत्मदाह) करती थी। राजस्थान और अन्य जगहों पर विभिन्न मंदिर उनकी पूजा और उनके कार्य को मनाने के लिए समर्पित हैं। रानी सती को नारायणी देवी भी कहा जाता है और उन्हें दादीजी (दादी) कहा जाता है।

दादी वंदना

दादीजी आओ थारा, मैं लाड लडाऊँगी, थे पीडे उपर बैठो थारा चरण दबाऊँगी।

मेंहन्दी सुरंगी राचणी, “मैं घोल के ल्याई माँ”-२, थे दोनुं हाथ बढ़ाओ, थारा हाथ रचाऊँगी।

मैं खन खन करती बाजणी, “पैजनियां ल्याई माँ”-२, थारा नाजुक पैर बढ़ाओ, पायल पहनाऊँगी।

कोमल कलियां गूंथ कर “मैं गजरो ल्यायी माँ”-२, थारी सोणी सोणी झांकी, माँ आज सजाऊँगी।

आरी तारी सुं जड़ी “थारी चुनड़ ल्याई माँ”-२, थे घणे चाव सुं ओढ़ो, थाने ओढ़ाऊँगी।

थारी लाडो बेटी ‘स्वाति’ “थारी बाट जोवे माँ”-२, चरणां में “हर्ष” भवानी, मैं लुल लुल जाऊँगी।।

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