पितृकर्म का परित्याग से दरिद्रता का समावेश

गोरखपुर

आचार्य पंडित शरदचन्द्र मिश्र,

गोरखपुर। श्राद्ध के सम्बन्ध में बहुत सी भ्रांतियां भी आज फैला दी गई है। कुछ लोगों का कथन है कि वे विवाह जैसे मांगलिक कार्य सम्पन्न किए हैं। इसलिए श्राद्ध जैसा कार्य न करें। लेकिन यह एक मिथ्या धारणा है। पितरों के लिए प्रतिवर्ष पितृपक्ष में श्राद्ध नैमित्तिक कार्य है और इसे किया जाना चाहिए। यदि वे नहीं करते हैं तो पितृ कुपित होकर उन्हें शाप देते हैं और उसका तथा उनके परिवार का विकास अवरूद्ध हो जाता है। उन्हें वर्ष पर्यन्त अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। अतः किसी भी दशा में पितरों के श्राद्ध का परित्याग न करें।जब अनेक वर्ष तक तर्पण और पितृपक्ष का श्राद्ध नहीं किया जाता है तो परिवार पितृदोष से ग्रसित हो जाता है। सनातन धर्म में दो कर्म प्रत्येक सनातनी के लिए विहित है। पितृकर्म और देव कर्म। हरिवंश पुराण में यहां तक कहा गया है कि देवों का अस्तित्व संदिग्ध हो सकता है परन्तु पितृ गणों का तो साक्षात अस्तित्व रहा है। अतः देव कर्म न्यून करने पर उतना दोष नहीं होता है। लेकिन पितृकर्म का परित्याग करने से दरिद्रता का समावेश होता है। वायु पुराण सहित अनेक धर्मशास्त्रीय साहित्य में पितृकर्म की बड़ी प्रशंसा की गई है।यह सत्य है कि हम अपने पूर्वजों की संतान हैं। शरीर,मन और आत्मा में उन्हीं के अस्तित्व से हमारा अस्तित्व स्थापित हुआ है। वे हमारे साक्षात देव हैं।

प्राचीन धर्म शास्त्रों में श्राद्ध के संबंध में बहुत सी बाते लिखी गई हैं। बताया गया कहा गया है कि श्राद्ध में समस्त लक्षणों से संपन्न विद्याशील एवं सद्गुणों से संपन्न तथा तीन पुरुषों से विख्यात ब्राह्मणों के द्वारा श्राद्ध संपन्न कराया जाए।काना, लंगड़ा, दाता का दास, अंगहीन एवं अधिक अंग वाला ब्राह्मण श्राद्ध में निषिद्ध हैं। देव कार्य, पूजा पाठ आदि में ब्राह्मणों की परीक्षा कम ली जाए, किंतु पितृ कार्य में अवश्य परीक्षा लें। श्राद्ध में बिल्वपत्र ,मालती, चम्पा, नागकेसर, जवापुष्प ,कनेर केतकी एवं समस्त लाल फूल वर्जित है। इनको श्राद्ध में प्रयोग करने से पितरों को नहीं मिलता है। उसे राक्षस ग्रहण करते हैं। श्राद्ध कर्म में केवल सफेद पुष्प काम में लाया जाना चाहिए। श्राद्ध के समय आंसू आने से पाक प्रेतों को, क्रोध से शत्रुओं को। असत्य संभाषण से कुत्तों को, पांव के स्पर्श होने से राक्षसों को तथा पाक को उछलने से पापियों को मिलता है। दातुन करना, पान खाना, तेल लगाना, भोजन न करना, स्त्री प्रसंग, औषधि सेवन, दूसरों का अन्न ग्रहण करना वर्जित हैं।

शास्त्रों में श्राद्ध की अनेक भेद बताए गए हैं। मत्स्य पुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध का वर्णन है। नित्य, नैमित्तिक और काम्य। इस तरह से श्रद्धा के तीन प्रकार बताए गये हैं। यम स्मृति में पांच प्रकार के श्राद्ध का उल्लेख मिलता है- नित्य, नैमित्तिक , काम्य ,वृद्धि और पार्वण । प्रतिदिन किए जाने वाली श्रद्धा को नित्य श्राद्ध कहते हैं। इसमें विश्व देव नहीं होते हैं ,यह अशक्तावस्था में केवल जल दान से ही इसकी पूर्ति हो जाती है , एकोदिष्ट श्राद्ध को नैमित्तिक श्राद्ध कहते हैं। इसमें भी विश्व देव नहीं होते हैं। किसी कामना की पूर्ति के निमित्त किए जाने वाले श्राद्ध को काम्य श्राद्ध कहते हैं। पुत्र जन्म एवं विवाह आदि मांगलिक कार्य में जो श्राद्ध किया जाता है उसे वृद्धि श्रद्धा या नान्दीश्राद्ध करते हैं। पितृपक्ष, अमावस्या अथवा पर्व की तिथि आदि पर जो श्राद्ध किया जाता है उसे पार्वण श्राद्ध कहते हैं। विश्वामित्र स्मृति एवं भविष्य पुराण में नित्य, नैमित्तिक, काम्य, वृद्धि, पार्वण,गोष्ठी ,शुद्धयर्थ ,कर्मांग, दैविक, सपिंडन,यात्रार्थ तथा पुष्ट्यर्थ – ये बारह प्रकार के श्राद्ध बताए गए हैं।

श्राद्ध में प्रेत पिंड का पितृ पिंडों में सम्मेलन किया जाता है उसे सब सपिंडन श्राद्ध कहते हैं। समूह में जो श्राद्ध किया जाता है उसे गोष्ठी श्राद्ध कहते हैं। शुद्धि के निमित्त जिस श्राद्ध में ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है उसे शुद्धयर्थ श्राद्ध कहते हैं। गर्भाधान, सीमन्तोयन आदि संस्कारों में जो श्राद्ध किया जाता है उसे कर्मांग श्राद्ध कहते हैं। सप्तमी आदि तिथियों में विशिष्ट हविष्य के द्वारा देवताओं के निमित्त भी श्राद्ध किया जाता है इसे दैविक श्राद्ध कहते हैं। तीर्थ के उद्देश्य से देश -देशांतर जाने के समय जो श्राद्ध किया जाता है उसे यात्रार्थ श्राद्ध कहते हैं ।शारीरिक अथवा आर्थिक उन्नति की जो श्राद्ध किया जाता है उसके पुष्ट्यर्थ श्राद्ध कहते हैं ।उपर्युक्त सभी प्रकार के श्राद्ध श्रौत और स्मार्त भेद से दो प्रकार के होते हैं। पिंड पितृयाग को श्रौत श्राद्ध कहते हैं और एकोदिष्ट, पार्वण तथा तीर्थ श्राद्ध से लेकर मरण तक के श्राद्ध को स्मार्त श्राद्ध कहते हैं।
श्रद्धा के 96 अवसर हैं, बारह महीने की बारह अमावस्याएं, सतयुग, त्रेतादि युगों के आरंभ की चार युगादि तिथियां, मनुओं के आरंभ की चौदह मन्वादि तिथियां, बारह संक्रांतियां, बारह वैथृति योग, बारह व्यतीपात योग, पन्द्रह महालय श्राद्ध, पांच अष्टकका श्राद्ध, पांच अन्वष्टका श्राद्ध तथा पांच पूर्वेद्यु श्राद्ध- ये श्राद्ध के 96 अवसर हैं।

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