सामाजिक समरसता की सुदृढ़ता में गोरक्षपीठ की है मार्गदर्शन भूमिका : प्रो. विश्वकर्मा
सामाजिक समरसता का भारत पूरे विश्व की आवश्यकता : प्रो. विश्वकर्मा
युगपुरुष ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ जी महाराज की 55वीं और राष्ट्रसंत ब्रह्मलीन महंत अवेद्यनाथ जी महाराज की 10वीं पुण्यतिथि के उपलक्ष्य में सम्मेलन का तीसरा दिन
‘सामाजिक समरसता : महायोगी गोरखनाथ और नाथपंथ के विशेष संदर्भ सन्दर्भ में’ विषयक सम्मेलन में बोले उच्च शिक्षा आयोग के पूर्व अध्यक्ष
गोरखपुर, 17 सितंबर। उत्तर प्रदेश उच्च शिक्षा आयोग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. ईश्वर शरण विश्वकर्मा ने कहा कि भारत सिर्फ एक देश नहीं है बल्कि यह पूरे विश्व का मार्गदर्शन करने के लिए एक अपरिहार्य आवश्यकता भी है, इसलिए इसका समर्थ और सशक्त होना अति आवश्यक है। भारत के समर्थ और सशक्त होने के लिए यह अनिवार्य हो जाता है कि जहां सामाजिक समरसता अपने उच्च स्तर पर दिखे। सामाजिक समरसता का भारत पूरे विश्व की आवश्यकता है। सामाजिक समरसता के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हमें अपने ऋषियों और संतों की उस परंपरा से प्रेरित होना होगा जिन्होंने हमें समरस और समर्थ समाज की विरासत दी थी। यह सबके लिए गौरवपूर्ण अनुभूति है कि समरस समाज के लिए नाथपंथ, इसके आभिर्भावक शिवावतार महायोगी गोरखनाथ और इस परंपरा के संवहन से अहर्निश एवं अद्यतन जुड़ी गोरक्षपीठ की मार्गदर्शक भूमिका इस लक्ष्य की ओर उन्मुख है।
प्रो. विश्वकर्मा मंगलवार को युगपुरुष ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ जी महाराज की 55वीं और राष्ट्रसंत ब्रह्मलीन महंत अवेद्यनाथ जी महाराज की 10वीं पुण्यतिथि के उपलक्ष्य में समसामयिक विषयों के सम्मेलनों की श्रृंखला के तीसरे दिन ‘सामाजिक समरसता : महायोगी गोरखनाथ और नाथपंथ के विशेष संदर्भ सन्दर्भ में’ विषयक सम्मेलन को बतौर मुख्य अतिथि संबोधित कर रहे थे। सभ्यता के प्रादुर्भाव काल से ही भारत पूरी दुनिया में अन्य देशों से बिल्कुल भिन्न रहा है। महाभारत में भगवान श्रीकृष्ण, अर्जुन से कहते हैं कि भारतवर्ष पूरे विश्व में श्रेष्ठतम है। इसका कारण यह है कि एकमात्र ऐसा देश है जिसके समाज का निर्माण ऋषियों, मुनियों एवं संतों की चिंतन परंपरा से हुआ है। संतों की चिंतन परंपरा ने ही मनुष्य को एक समाज के रूप में सबसे विचारवान प्राणी बनाया। मनुष्यता को केंद्र में रखकर हमारे ऋषियों और संतों ने समाज को जो विरासत दी, उसकी सबसे अमूल्य निधि रही समरसता। संतो द्वारा बनाए गए हमारे समाज की ही विशेषता थी कि हमें वसुधैव कुटुंबकम का दर्शन विरासत में प्राप्त हुआ।
प्रो. विश्वकर्मा ने कहा कि जब हमारी विरासत सामाजिक समरसता को लेकर इतनी समृद्धि थी तो यह विचारणीय प्रश्न है कि आज हमें इसे लेकर अलग से चिंतन क्यों करना पड़ रहा है। उन्होंने कहा कि भारत की सामाजिकता और सामाजिक चिंतन प्रणाली का एक दौर ऐसा भी था जब विदेशी अध्येता भारत का दर्शन करने और यहां के विचार-दर्शन का अध्ययन करने आते थे। उन्होंने कहा कि वाह्य आक्रमण, धर्म परिवर्तन जैसे कारण ही सामाजिक समरसता कम होने के लिए जिम्मेदार नहीं है बल्कि सबसे बड़ा कारण हमारा संतों की परंपरा से विलग होना रहा है।
विकृति के बाजार में संस्कृति की शंखनाद हैं संत
प्रो. ईश्वर शरण विश्वकर्मा ने हरेक कालखंड में संतों की भूमिका महत्वपूर्ण बताते हुए कहा कि संत विकृति के बाजार में संस्कृति की शंखनाद हैं। संत की भूमिका उस धोबी की है जो सत्संग के धोबीघाट पर मनुष्यों की कलुषता के दाग को धो डालता है। इस महत्वपूर्ण भूमिका के परिपेक्ष में देखें तो समाज में सबसे बड़ा योगदान हमें नाथपंथ की तरफ से देखने को मिलता है। उन्होंने कहा कि नाथपंथ के संतों ने सिर्फ सामाजिक आंदोलन का ही नेतृत्व नहीं किया है बल्कि स्वाधीनता के आंदोलन में भी समाज को सही दिशा दिखाई है। देश जब गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था, तब शिवावतार योगी गोरखनाथ के अनुयायी नाथपंथी योगी सारंगी लेकर समाज को जगाने के लिए निकल पड़े थे।
अस्पृश्यता और जातिवाद के खिलाफ महंत दिग्विजयनाथ और महंत अवेद्यनाथ का योगदान अतुलनीय
प्रो. विश्वकर्मा ने कहा कि गोरख पीठ के पेठाधीश्वरों ने सामाजिक समरसता को मजबूत करने मेंअथक प्रयास किए हैं। इस पीठ के ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ जी महाराज और महंत अवेद्यनाथ जी महाराज ने जातिवाद और अस्पृश्यता से मुक्ति के लिए जो योगदान दिए हैं, वह अतुलनीय हैं। महंतद्वय के नेतृत्व में आगे बढ़ा राम मंदिर का आंदोलन वास्तव में सामाजिक समरसता को भी प्रतिबिंबित करता है। जिस प्रकार भगवान राम ने अपने जीवन में निषादराज, शबरी आदि के माध्यम से सामाजिक समरसता का आदर्श प्रस्तुत किया था उसी तरह राम मंदिर को लेकर चलाए गए अभियान में भी महंत अवेद्यनाथ जी ने दलितों, वंचितों को आगे लाकर सामाजिक समरसता को यथार्थ रूप में स्थापित किया। उन्होंने कहा कि हमारी सनातन संस्कृति सबके साथ रहने की अर्थात कौटुंबिक संस्कृति है। इस संस्कृति को आगे बढ़ाने में नाथपंथ की विशेष भूमिका सदैव परिलक्षित हुई है। वर्तमान में नाथपंथ का नेतृत्व करने वाली गोरक्षपीठ ने सामाजिक समरसता को सुदृढ़ करने के लिए शिक्षा, चिकित्सा और सेवा के अनेक प्रकल्पों को भी आगे बढ़ाया है।