संस्कृति के सनातन संस्कार
हरिद्वार
भारतीय संस्कृति के मूल में आध्यात्मिकता है। यह संस्कृति ईश्वर-केंद्रित एवं अनुभव आधारित है। लाखों, करोड़ों वर्ष से हमारे ऋषि-मुनियों, महात्माओं ने अपनी भक्ति, कर्म, ध्यान, तपस्या और आत्मा की अन्तर्दृष्टि से विभिन्न विधाओं में आध्यात्मिक और भौतिक ज्ञान का सृजन किया
भारत अनादिकाल से एक अध्यात्म-प्रधान समृद्ध संस्कृति वाले सनातन राष्ट्र के रूप में विख्यात रहा है। भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृति है। यह सनातन संस्कृति है। ‘सनातन’ शब्द का अर्थ है जो शाश्वत है, ‘अनादि’ है, ‘अनंत’ है। अर्थात् भारतीय सनातन संस्कृति शाश्वत है, सार्वभौमिक है, अनवरत है, न कभी आरंभ और न ही कभी समाप्त होने वाली है, यह चिरस्थायी है। भारत की भौगोलिक स्थिति और यहां निवास करने वाली प्रजा के संबंध में विष्णु पुराण में वर्णित है-
उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।
वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्तति:॥
अर्थात् समुद्र के उत्तर में और हिमालय के दक्षिण में जो वर्ष (क्षेत्र) है, उसका नाम भारत है तथा यहां की प्रजा भारतीय है।
भारत प्रजा का भरण-पोषण करने वाली अमृतदायिनी ‘भारताग्नि’ का क्षेत्र है (ऋग्वेद 5/11/1)। इस भारताग्नि के प्रभाव से छह विविध ऋतुओं तथा विभिन्न दिशाओं में प्रवाहित होने वाली विशाल नदियों, नद और तीन सप्तसिंधुओं के कारण इस शस्य श्यामला उर्वरा भूमि पर प्रजा का भरण-पोषण होता रहा है। अन्न-धन से संपन्न, भारताग्नि द्वारा पोषित, प्राकृतिक संपदा से भरपूर, स्वाभाविक रूप से प्रजा का भरण-पोषण करने के कारण इस भूभाग को भारताग्नि के समानार्थी शब्द ‘भारत’ के नाम से संबोधित किया जाने लगा।
ऋग्वेद में ‘भारत’ का राष्ट्र के रूप में उल्लेख मिलता है- विश्वामित्रस्य रक्षति ब्रह्मेदं भारतं जन (3/53/12)। अर्थात् विश्वामित्र के मंत्र, उनकी प्रार्थनाएं इस भारत जन (राष्ट्र) की रक्षा करती हैं। भारत सदा से प्रचुर मात्रा में सूर्य के प्रकाश को प्राप्त करने वाला, ऊर्जा और सुख का संपूर्ण भरण करने वाले विभिन्न क्षेत्रों में अग्नि के समान तेजस्विता से परिपूर्ण विद्वानों का निवास क्षेत्र रहा है- तस्मा अग्निर्भारत: शर्म यंसज्ज्योक्पश्यात् सूर्यमुच्चरन्तम् (ऋग्वेद 4/25/4)। स्कंद पुराण के अध्याय 37 के अनुसार, भगवान ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र चक्रवर्ती सम्राट महाराज भरत थे, जिनके नाम पर इस भूभाग का नाम भारत पड़ा।
महाभारत के आदिपर्व में, शकुंतला और राजा दुष्यंत के पुत्र भरत के नाम से भी भारत नाम को बल मिलता है। भरत के जन्म के बाद ऋषि कण्व उन्हें आशीर्वाद देते हैं कि वे आगे चलकर चक्रवर्ती सम्राट बनेंगे और उनके नाम पर इस भूखंड का नाम भारत प्रसिद्ध होगा। अग्निपुराण (278/6-7) के अनुसार भी शकुंतला पुत्र भरत के नाम से इस देश का नाम भारत पड़ा- शकुन्तलायान्तु बली यस्यनाम्ना तु भारता:। मत्स्यपुराण (114/5) के अनुसार भरणात्प्रजनाच्चैष मनुर्भरत उच्यते अर्थात् अपनी प्रजा के भरण-पोषण करने के कारण इस देश के मनु (शासक) को भरत नाम से जाना जाता है। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा है-‘विश्व भरण-पोषण कर जोई, ताकर नाम भरत अस होई।’ अर्थात संपूर्ण विश्व का भरण-पोषण करने वाला भरत कहलाता है।
श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित है कि देवगण भी गीत गाते हैं कि भारत भूमि पर जन्म लेने वाले धन्य हैं, क्योंकि यह भूमि स्वर्ग और मोक्ष का मार्ग दिखाती है और यहां मानव देवत्व प्राप्त करने के बाद भी पुन: मानव रूप में जन्म लेते हैं-
गायन्ति देवा: किल गीतकानि धन्यास्तु ते भारतभूमिभागे।
स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते भवन्ति भूय: पुरुषा: सुरत्वात्।
भारत के नाम का पौराणिक महत्व हमारे भारतीय जनमानस में रचा-बसा है। भारत केवल शब्द नहीं है, बल्कि ऐसा मंत्र है जिसके उच्चारण मात्र से ‘भा+र+त’ से प्रकृति के तीनों गुणों यानी ‘भा’ से सत्व (प्रकाश, ज्ञान ), ‘र’ से रजस और ‘त’ से तमस का आह्वान हो जाता है। भारत शब्द इस देश की सांस्कृतिक विरासत है जिसके उच्चारण से हमारे मन-मस्तिष्क में वैदिक ऋषियों द्वारा प्रणीत ज्ञान-विज्ञान और संस्कारों की धारा अनायास प्रवाहित होने लगती है।
भारत की संस्कृति आदि काल से ही अपने परंपरागत अस्तित्व के साथ अजर-अमर बनी हुई है। संपूर्ण भारत में अनादि काल से राम, कृष्ण और शिव की आराधना, देवी-देवताओं की मान्यता; हवन, पूजा-पाठ की पद्धतियां; नदियों, वृक्षों, सूर्य-चंद्रमा समेत प्राकृतिक देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना होती आ रही है। वेदों और वैदिक धर्म में समस्त भारतीयों की अटूट आस्था है। वेद, गीता और उपनिषदों के संदेश भारतीय संस्कृति की निरंतरता और जीवंतता के मानक हैं। वेद आध्यात्मिक ज्ञान और भौतिक ज्ञान के मूल स्रोत हैं। भारतीय संस्कृति के मूल आधार वेद हैं। ईश्वरीय ज्ञान के कारण वैदिक ज्ञान ही मूल ज्ञान हैं। ईश्वर ने सृष्टि की रचना के साथ ही वेदों की रचना की। ईश्वर शाश्वत है; अत: वैदिक ज्ञान भी शाश्वत है।
सनातन मूल्य भारतीय संस्कृति की आत्मा हैं। ये मूल्य न केवल धार्मिक ग्रंथों में वर्णित हैं, बल्कि जन-जन के जीवन में भी गहराई से समाए हुए हैं। ये मूल्य शाश्वत और चिरस्थायी हैं, सार्वभौमिक हैं। सनातन मूल्य हमारे अपेक्षित पालनीय कर्तव्य हैं। इन मूल्यों को आत्मसात करने से सही अर्थ में धर्मपारायण, शीलवान मानव का निर्माण होता है। महर्षि कणाद वैशेषिक दर्शन के दूसरे ही सूत्र में धर्म की परिभाषा करते हुए कहते हैं-यतो अभ्युदय नि:श्रेयस सिद्धि:स धर्म: यानी जिससे मनुष्य की लौकिक उन्नति और पारलौकिक हित प्राप्त हो उसे धर्म कहते हैं। अर्थात् हमारे वे मूल्य या कर्तव्य जिसके पालन से हमें लौकिक और पारलौकिक जगत में सिद्धियां प्राप्त हों, वह धर्म है।