सत्य, धर्म, दया और तप ही धर्म के चार चरण : कथा व्यास

श्रद्धा

मूर्ति प्राण प्रतिष्ठा पर आयोजित सात दिवसीय श्रीमद्भागवत कथा ज्ञान-यज्ञ के तीसरे दिवस पर बोले कथा व्यास डॉ॰ श्यामसुन्दर पाराशर

ब्रहलीन महंत दिग्यविजयनाथ सभागार में श्रद्धालुओं को श्रीमद्भागवत महापुराण कथा का रसपान कराते कथा व्यास डॉ॰ श्यामसुन्दर पराशर जी।

गोरखपुर। श्री गोरखनाथ मंदिर में मूर्ति प्राण प्रतिष्ठा के अवसर पर आयोजित सात दिवसीय श्रीमद्भागवत कथा ज्ञान-यज्ञ के तीसरे दिवस के अवसर कथा व्यास डॉ॰ श्यामसुन्दर पाराशर ने भागवत में वर्णित भीष्म गीता का उल्लेख करते हुए बताया कि शर-शैय्या पर लेटे भीष्म जब प्रभु श्री कृष्ण का दर्शन करते हैं तो कहते हैं जब तक मेरे प्राण हैं तब तक आप मेरे सामने रहे, और मैं आपकी स्तुति करता रहूं। भीष्म ने भगवान की महिमा का गुणगान करते हुए उनकी स्तुति किया है। द्वादश महाभागवतों में एक भीष्म पितामह हैं, जिन्होंने भगवान की सुंदर स्तुति करते हुए कहा कि मैं अपनी बुद्धि को हमेशा के लिए आपको सौप रहा हूँ और यहीं कहते हुए वे परमधाम चले गये।

उन्होंने बताया कि परीक्षित के जन्म होने के कुछ हीं वर्ष बाद माता कुन्ती और सभी पांडव बंधु परमधाम को चले गए। बहुत छोटी उम्र में ही परीक्षित जी ने अपने राज्य का दायित्व सभाला। उसके बाद कलियुग का आगमन होता है।

कथाव्यास ने बताया कि धर्म के चार चरण होते हैं सत्य, धर्म, दया और तप। इनमें से एक भी न रहे तो धर्म लगड़ा होता है। ऐसा स्वरूप कलियुग में धर्म का बतया गया है।

उन्होनें परीक्षित का प्रसंग सुनाते हुए कहा कि जो मौत के भय से मुक्ति चाहता हो, वह मुरली मनोहर से नाता जोड़ लें। मरणासन्न परीक्षित जी को भगवान शुकदेव ने उपदेश किया कि मृत्यु जिसके भय दौड़ती है, उस प्रभु के शरण में जाने से आपका कल्याण होगा, और फिर उन्होंने परीक्षित को श्रीमद्भागवत की कथा श्रवण करायी।

कथा व्यास ने कहा कि यह चौदहों भुवन भगवान् का विराट शरीर है और भारतवर्ष भगवान् का हृदय है तथा भारत में बहने वाली गंगा, यमुना, सरस्वती, नदियां भगवान की हृदय की नाडियां है। अन्य विश्व की सभी नदियां उनके शरीर की अन्य नाडियां हैं। इसलिए गंगा नदी में हमें स्वच्छता का ध्यान रखना चाहिए, यदि गंगा के बहाव में गंदगी या ब्लॉकेज होता है तो भगवान को हृदयाघात जैसा कष्ट होता है।

उन्होंने कहा कि भगवान की कृपा के अंक के साथ जुड़े रहो तो तुम्हारी वृद्धि होती रहेगी, यदि व्यक्ति के जीवन में उनकी कृपा नहीं रहेगी, तो जीवन शुन्य हो जाता हैं।

कथा व्यास ने कहा कि सृष्टि के आरंभ में कमल से ब्रह्मा की उत्पत्ति होती है, उत्पत्ति के बाद ब्रह्मा जी सोचते हैं कि मैं कौन हूँ, तो उन्हें ‘त’ और ‘प’ ये दो शब्द सुनाई देते हैं, इससे उनको तप करने की प्रेरणा मिलती है, उन्होंने तप किया जिससे भगवान नारायण उनको दर्शन देकर चार श्लोक में उपदेश करते हैं उन्हीं चार श्लोकों को चतुश्लोकी भागवत कहा जाता है।

कथाव्यास ने संसार के कारण भगवान् को बताते हुए कहा कि भगवान् मकड़ी की तरह संसार के निमित्त और उपादान दोनों कारण होते हैं। जैसे मकड़ी अपने जाल के प्रति निमित्त और उपादान दोनों कारण होती है। उसी प्रकार से भगवान भी स्वयं के द्वारा स्वयं से संसार की उत्पत्ति करते हैं।। इसलिए संसार के सभी जीवों में अभिन्न रूप से विद्यमान रहते ।

कथा व्यास ने कहा कि प्रारब्ध जीव के पीछे-पीछे दौड़ता है, जैसे बछड़ा को जहाँ ले जाओ, उसकी माता उसके पीछे-पीछे दौड़ती जाती हैं। आप जंगल में भी रहेंगे तो आपको वहां राज सुख मिलेगा और राजमहल में भी रहेंगे तो वहाँ वनवास जैसा दुख मिलेगा, यदि आपका प्रारब्ध है तो। प्रारब्ध पूर्व कर्म का फल है जो व्यक्ति के पीछे-पीछे चलता है, उससे तभी बच सकते हैं जब भगवान् की कृपा होगी।

कपिल भगवान ने अपने माता देवहूति को उपदेश करते हुए बताया कि हमारा मन ही बन्धन और मुक्ति की चाभी हैं, इसे‌ जहाँ लगाएंगे वैसा परिणाम मिलेगा। किन्तु इस मन को परमात्मा में लगाना कठिन है, इसके लिए सन्तों की संगति करना चाहिए। जो परमात्मा से जुड़े हैं वो आपको भी उनसे जोड़ देंगे।

उन्होने कहा कि सन्त की पहचान के लिए भगवान् कपिल ने मां को बताया कि सन्त के पाँच लक्षण होते हैं, तितिक्षा‌ अर्थात् सुख दुख में समानता का भाव, करुणा का भाव, अजातशत्रु का भाव और शान्ति का भाव। ये गुण जिनमें रहे, उनसे संग करो।

सन्त जन संसार के लोगों में भगवान् का दर्शन करते हैं वह किसी से बैर नहीं करते। यदि किसी को क्रोधवश श्राप भी देते हैं तो वह कल्याणकारी होता है उसी श्राप के कारण उनको भगवान का दर्शन मिल जाता है।

कथाव्यास ने कहा कि जो माया के वश में रहता है, वह है जीवात्मा और जो माया से मुक्त होकर संसार में रहते हैं वह है महात्मा तथा जो माया को अपने इशारे पर नचाए वह है परमात्मा। जीवात्मा को परमात्मा से मिलाने में महात्मा बिचौलियां का कार्य करते हैं। इसलिए जिनको परमात्मा से मिलने की इच्छा हो वह महात्मा का संग करें।

उन्होंने कबीर दास के भजन “संतन के संग लाग रे, तेरी अच्छी बनेगी” गाकर श्रोताओं को भाव विभोर कर दिया।

कथाव्यास ने कहा कि कपिल जी ने अपनी माता को भक्तों के भी प्रकार बताया और कहा कि जो मंदिर की मूर्तियों में भगवान् का दर्शन करे वह अधम भक्त, जो संतो में भगवान का दर्शन करे वह मध्यम भक्त, जो सभी मनुष्यों में भगवान् का दर्शन करे वह उत्तम भक्त तथा जो सभी पशु-पक्षियों कीट पतंगों में भगवान का दर्शन करे वह उत्तमोत्तम भक्त होता है।

उन्होंने साधना के लिए पवित्र तीर्थ भूमि के महत्व का वर्णन करते हुए बताया कि जहां सिद्ध संत जन तप किया करते हैं वहां पहुंचने मात्र से सकारात्मक ऊर्जा मिलती है ऐसी भूमि पर भजन करने पर शीघ्र भगवान की भक्ति मिलती है।

कथा का समापन आरती और प्रसाद वितरण से हुआ। संचालन डॉ॰ श्रीभगवान सिंह ने किया।

गोरखनाथ मंदिर के प्रधान पुजारी योगी कमलनाथ जी, कटक ओडिसा से महंत शिवनाथ, वाराणसी से श्री संतोषदास सतुआबाबा तथा योगी रामनाथ, कालीबाड़ी के महंत रवीन्द्रदास, महंत पंचानन पुरी, यजमान श्रवण जालान तथा अवधेश सिंह, अजय सिंह, उमेश अग्रहरि, शशांक शास्त्री, शुभम मिश्र आदि उपस्थित रहे।

Related Articles